आरयू ब्यूरो, लखनऊ। सेप्सिस भारत समेत दुनियाभर में हर साल करोड़ों लोगों की जान ले रहा है। अकेले इंडिया में ही करीब एक करोड़ दस लाख लोग सालभर में इसकी चपेट में आते हैं, जिनमें से 30 लाख लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ती है, जबकि दुनियाभर में हर साल पांच करोड़ लोगों का यह अपनी चपेट में लेता है और एक करोड़ दस लाख लोगों की मौत हो जाती है।
यह भयावह आंकड़ें विश्व सेप्सिस दिवस एक दिन पूर्व किंग जार्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में आयोजित प्रेसवार्ता में प्रोफसर वेद प्रकाश ने दिए हैं। पल्मोरी एंड क्रिटिकल केयर मेडिसन विभाग के प्रमुख प्रोफेसर वेद प्रकाश ने बताया कि सेप्सिस की सही समय पर पहचान और सटीक इलाज ही सेप्सिस पर जीत का मंत्र है।
डराने वाले आंकड़े सामने आने के बाद सेप्सिस के बारे में साढ़े सात प्रतिशत लोग ही जानकरी रखते हैं, जबकि सेप्सिस को टीकाकरण और अच्छी देखभाल से रोका जा सकता है और शीघ्र पहचान और उपचार से सेप्सिस मृत्यु दर को 50 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।
डाक्टर वेद ने बताया कि सेप्सिस सभी उम्र और पृष्ठभूमि के लोगों को प्रभावित कर सकता है। इसकी घटनाएं बढ़ रही हैं, पिछले कुछ दशकों में इसमें अत्यधिक वृद्धि देखी गई है। यह बीमारी मुख्य रूप से निमोनिया (फेफडों में संक्रमण) मूत्र मार्ग में होने वाला संक्रमण या आपरेशन की जगह होने वाले संक्रमण की वजह से होती है। सेप्सिस के लिये प्रमुख रूप से शुगर (डायबिटीज), कैंसर के मरीज व रोग प्रतिरोधक क्षमता कम करने वाली दवाएं जैसे स्टेरोइड खाने वाले मरीज ज्यादा प्रभावित होते हैं। यह वर्ल्ड लेवल पर पांच में से एक मौत होने का सबसे बड़ा कारण है।
वहीं भारत में सेप्सिस से होने वाली मौतों की दर करीब 100,000 लोगों पर 213 है, जो वैश्विक औसत दर से काफी ज्यादा है। जबकि इससे हर साल वैश्विक अर्थव्यवस्था को 5 लाख 15 हजार करोड रूपये़ का नुकसान होता है।
वेद प्रकाश ने बताया कि कुछ दशकों में सेप्सिस की घटनाओं में थोड़ी कमी आई है, लेकिन मृत्यु दर चिंताजनक रूप से अधिक बनी हुई है। वैश्विक स्तर पर सेप्सिस के सभी मामलों में से लगभग 40 प्रतिशत मामले पांच साल से कम उम्र के बच्चों के होते हैं।
बुजुर्गों और नवजात शिशुओं में सेप्सिस होने पर मृत्यु दर भी अधिक होती है। जिसका प्रमुख कारण यह है कि इसमें रोगों से लड़ने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र का कमजोर होना है।
सेप्सिस से बचे 50 प्रतिशत तक लोग दीर्घकालिक शारीरिक व मनोवैज्ञानिक बीमारी से पीड़ित होते हैं।
एक हालिया अध्ययन से यह भी पता चला है कि भारत में आईसीयू के आधे से अधिक मरीज सेप्सिस से पीड़ित हैं, और मल्टी-ड्रग-प्रतिरोधी बैक्टीरिया के कारण होने वाले सेप्सिस की व्यापकता चिंताजनक रूप से 45 प्रतिशत से भी ज्यादा हैं। एक रिसर्च के लिए देशभर के 35 आइसीयू से लिए गए 677 मरीजों में से 56 प्रतिशत से अधिक मरीजों में सेप्सिस पाया गया। और इसमें अधिक चिंता की बात यह थी कि 45 प्रतिशत मामलों में, संक्रमण बहु-दवा प्रतिरोधी बैक्टीरिया के कारण हुआ था।
सेप्सिस एक जटिल और जीवन-घातक स्थिति है जो तब उत्पन्न होती है जब संक्रमण के प्रति शरीर की प्रतिक्रिया से व्यापक सूजन और ऊतक क्षति होती है।
इन कारणों और प्रकार के संक्रमणों से सेप्सिस हो सकता है-
जीवाणु संक्रमण- सेप्सिस का सबसे आम कारण जीवाणु संक्रमण है, जो विभिन्न स्रोतों से उत्पन्न होता है, जैसे यूटीआइ इंफेक्शन, निमोनिया, त्वचा और सॉफट टिश्यू इंफेक्शन, पेट संक्रमण और रक्त प्रवाह इंफेक्शन।
वायरल संक्रमण- वेद प्रकश के अनुसार हालांकि कम बार गंभीर इन्फ्लूएंजा, एचआइवी से संबंधित संक्रमण और वायरल निमोनिया जैसे वायरल संक्रमण भी सेप्सिस का कारण बन सकते हैं।
फंगल संक्रमण- कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले व्यक्तियों में फंगल संक्रमण के कारण सेप्सिस का खतरा ज्यादा होता है।
परजीवी इंफेक्शन- दुर्लभ, मलेरिया जैसे परजीवी संक्रमण सेप्सिस का कारण बन सकते हैं।
अस्पताल से मिला इंफेक्शन- स्वास्थ्य देखभाल सेटिंग्स में मरीजों को सर्जिकल साइट संक्रमण, कैथेटर से जुड़े संक्रमण (जैसे, सेंट्रल लाइन से जुड़े रक्तप्रवाह संक्रमण), और वेंटिलेटर से जुड़े निमोनिया इत्यादि हो सकता है।
समुदाय प्राप्त इंफेक्शन- स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं के बाहर होने वाले संक्रमण, जैसे त्वचा के फोड़े, यूटीआई और स्ट्रेप्टोकोकल संक्रमण भी सेप्सिस में बदल सकते हैं।
इसके अलावा कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले लोग, जैसे कि कीमोथेरेपी से गुजरने वाले, प्रत्यारोपण प्राप्तकर्ता, और एचआईवी एड्स वाले व्यक्तियों में संक्रमण के ज्यादा मामले सामने आते हैं।
दीर्घकालिक चिकित्सा स्थितियां- मधुमेह, क्रोनिक किडनी रोग और क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) जैसी पुरानी बीमारियां संक्रमण की संवेदनशीलता को बढ़ाती हैं, जो सेप्सिस तक बढ़ सकती हैं।
कुछ चिकित्सा प्रक्रियाएं, जिनमें सर्जरी और कैथेटर या मैकेनिकल वेंटिलेटर जैसे चिकित्सा उपकरणों की वजह से संक्रमण होता है जिससे सेप्सिस हो सकती है।
अपर्याप्त एंटीबायोटिक उपयोग- एंटीबायोटिक दवाओं के अनुचित या विलंबित उपयोग से संक्रमण बढ़ सकता है, खासकर तब जब बैक्टीरिया उपचार के प्रति प्रतिरोधी होते हैं, जिससे सेप्सिस का खतरा बढ़ जाता है।
उम्रदराज जनसंख्या- वृद्ध वयस्क, जो अक्सर कई पुरानी बीमारियों से ग्रस्त होते हैं, संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं और परिणामस्वरूप, सेप्सिस के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।
नशीली दवाओं का दुरुपयोग- दूषित सुइयों के साथ नशीले पदार्थों का प्रयोग रक्तप्रवाह में बैक्टीरिया या फंगस को प्रवेश करा सकता है, जिससे सेप्सिस हो सकता है।
सेप्सिस के लक्षण-
सेप्सिस एक चिकित्सीय आपातकाल है जो तेजी से विकसित हो सकता है। शीघ्र उपचार के लिए इसके संकेतों और लक्षणों की शीघ्र पहचान महत्वपूर्ण हैः
- बुखार या हाइपोथर्मिया
- हृदय गति का बढ़ना
- तेजी से सांस लेना एवं सांस फूलना
- भ्रम या परिवर्तित मानसिक स्थिति
- निम्न रक्तचाप
- सांस लेने में कठिनाई
- अंग की खराबी के लक्षण- जैसे-जैसे सेप्सिस बढ़ता है, यह अंग के कार्य को ख़राब कर सकता है, जिससे मूत्र उत्पादन में कमी, पेट में दर्द, पीलिया और थक्के जमने की समस्या जैसे लक्षण पैदा हो सकते हैं।
- त्वचा में परिवर्तन- सेप्सिस के कारण त्वचा धब्बेदार या बदरंग हो सकती है, जो पीली, नीली या धब्बेदार दिखाई दे सकती है और छूने पर त्वचा असामान्य रूप से गर्म या ठंडी महसूस हो सकती है।
- गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल लक्षण- सेप्सिस से पीड़ित कुछ व्यक्तियों को मतली, उल्टी, दस्त या पेट में परेशानी का अनुभव होता है।
- सेप्टिक शॉक- सबसे गंभीर मामलों में सेप्सिस सेप्टिक शॉक में बदल सकता है, जिसमें बेहद कम रक्तचाप, परिवर्तित चेतना और कई अंग विफलता के लक्षण होते हैं। सेप्टिक शॉक एक जीवन घातक आपातकाल है।
- संक्रमण- मूल संक्रमण में फेफड़ों के संक्रमण या यूटीआई के साथ मूत्र संबंधी लक्षणों के मामले में खांसी जैसे लक्षण हो सकते हैं, जो सेप्सिस में बदल सकते हैं।
सेप्सिस की पहचान:-
डॉ वेद ने बताया सेप्सिस के इलाज के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, जिसमें समय पर और सटीक पहचान सुनिश्चित करने के लिए प्रयोगशाला और इमेजिंग अध्ययनों के साथ नैदानिक मूल्यांकन को एकीकृत किया जाता है।
नैदानिक मूल्यांकन– निदान एक संपूर्ण नैदानिक मूल्यांकन से शुरू होता है, जहां स्वास्थ्य सेवा प्रदाता रोगी के चिकित्सा इतिहास, शारीरिक परीक्षण के निष्कर्षों और बुखार, हृदय गति में वृद्धि, तेजी से सांस लेने और बदली हुई मानसिक स्थिति जैसे लक्षणों का मूल्यांकन करते हैं।
संदिग्ध संक्रमण- सेप्सिस के निदान का एक महत्वपूर्ण घटक एक संदिग्ध या पुष्टि किए गए संक्रमण की पहचान करना है
प्रयोगशाला परीक्षण- सेप्सिस का निदान करने के लिए ब्लड टेस्ट कराना जरूरी है। इसमें बायोकेमिस्टी (सीबीसी), और सी-रिएक्टिव प्रोटीन (सीआरपी) और प्रोकैल्सीटोनिन जैसे सूजन मार्करों की जांच की जाती है। असामान्य परिणाम, जैसे कि बढ़ी हुई श्वेत रक्त कोशिका ,चल रहे संक्रमण का संकेत देते हैं।
इमेजिंग- छाती के एक्स-रे या सीटी स्कैन जैसे इमेजिंग अध्ययन का उपयोग संक्रमण के स्रोत या निमोनिया या संक्रमण जैसी जटिलताओं की पहचान करने के लिए किया जा सकता है, जो सेप्सिस के निदान में सहायता करता है।
सूक्ष्म जैविक परीक्षण– खून, मूत्र, थूक या अन्य शारीरिक तरल पदार्थों की जांच से रोगजनक की पहचान करने से लक्षित एंटीबायोटिक परीक्षण से चिकित्सा का मार्गदर्शन करने में मदद मिलती है।
सिंड्रोमिक परीक्षण- सिंड्रोमिक परीक्षण के लिए आणविक निदान उपकरण एक ही रोगी के नमूने से कई रोगजनकों और एंटीबायोटिक प्रतिरोध जीन का तेजी से पता लगा सकते हैं, जिससे संक्रमण की सटीक पहचान करने और एंटीबायोटिक चिकित्सा को परिवर्तित करने में सहायता मिलती है।
सेप्सिस प्रबंधन-
प्रभावी सेप्सिस प्रबंधन रोगी के परिणामों में सुधार लाने और मौत की दर को कम करने के लिए महत्वपूर्ण है, जिसके लिए तेजी से हस्तक्षेप और समन्वित देखभाल की आवश्यकता होती है।
शीघ्र पहचान- सेप्सिस की शीघ्र पहचान महत्वपूर्ण है। स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को तेजी से उपचार शुरू करने के लिए, बदली हुई मानसिक स्थिति, तेजी से सांस लेने और हाइपोटेंशन सहित शुरुआती संकेतों और लक्षणों की पहचान करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।
संक्रमण स्रोत नियंत्रण- इंफेक्शनण के स्रोत का पता लगाना जरूरी है। इसमें फोड़े-फुन्सियों को निकालने, संक्रमित ऊतक को हटाने, या अन्यथा सेप्सिस के अंतर्निहित कारण को संबोधित करने के लिए सर्जिकल प्रक्रियाएं शामिल हो सकती हैं।
एंटीबायोटिक प्रबंधन- एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति रोगी की प्रतिक्रिया की निरंतर निगरानी आवश्यक है।
ऑक्सीजन थेरेपी- पर्याप्त ऑक्सीजन सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। अगर जरूरत होते तो यांत्रिक वेंटिलेशन सहित ऑक्सीजन थेरेपी, रोगी के श्वसन कार्य का समर्थन करती है।
अंग समर्थन- जैसे गुर्दे की विफलता के लिए डायलिसिस या हृदय समर्थन करने के लिए दवाएं इत्यादि सम्मिलित हैं।
ग्लूकोज नियंत्रण- सेप्सिस देखभाल में रक्त ग्लूकोज के स्तर को प्रबंधित करना महत्वपूर्ण है।
कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स- कुछ मामलों में सूजन को कम करने और हेमोडायनामिक्स को स्थिर करने के लिए कॉर्टिकोस्टेरॉइड्स का उपयोग किया जा सकता है।
पोस्ट-सेप्सिस देखभाल- सेप्सिस से बचे लोगों को अक्सर शारीरिक और मनोवैज्ञानिक बीमारियां से निपटने के लिए निरंतर चिकित्सा और पुनर्वास सहायता की आवश्यकता होती है, जिसे पोस्ट-सेप्सिस सिंड्रोम के रूप में जाना जाता है।
वेद प्रकाश ने कल से शुरू होने वाले दो दिवसीय सम्मेलन की जानकारी देते हुए बताया कि पल्मोनरी और क्रिटिकल केयर मेडिसिन विभाग को विश्व सेप्सिस दिवस के उपलक्ष्य में 13 और 14 सितंबर के लिए निर्धारित सम्मेलन की घोषणा करते हुए गर्व हो रहा है। विभाग ने सेप्सिस मामलों के असाधारण प्रबंधन के लिए एक विशिष्ट प्रतिष्ठा अर्जित की है, जो भारत की सबसे बड़ी श्वसन गहन देखभाल इकाई (आईसीयू) की उपस्थिति से रेखांकित होती है। 30 बिस्तरों से सुसज्जित यह अत्याधुनिक सुविधा, 10 प्रतिशत से कम की वेंटिलेटर-एसोसिएटेड निमोनिया (वीएपी) दर का दावा करती है – जो नैदानिक उत्कृष्टता का एक बेंचमार्क है। इसके अलावा, विभाग ने 85 प्रतिशत के करीब मरीजों का ठीक करके उल्लेखनीय मुकाम हासिल किया है, जो बेहतर रोगी परिणामों और अत्याधुनिक देखभाल के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
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प्रेसवार्ता में वेद प्रकाश के अलावा वीपी चेस्ट इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली के पूर्व निदेशक प्रोफेसर (डॉ.) राजेंद्र प्रसाद, केजीएमयू के यूरोलॉजी विभाग के प्रमुख प्रोफेसर (डॉ.) अपुल गोयल, क्रिटिकल केयर मेडिसिन के प्रमुख प्रोफेसर (डॉ.) अविनाश अग्रवाल, रेस्पायरेटरी मेडिसिन के प्रो. (डा.) आर.ए.एस कुशवाहा भी मौजूद रहें।