आरयू वेब टीम। कोरोना संक्रमण के कारण देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है, जिसको लेकर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने मंगलवार को नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी से कोविड-19 की वजह से अर्थव्यवस्था को पहुंचे नुकसान को लेकर बात की। दोनों ने अर्थव्यवस्था की चुनौतियों, कोरोना संकट से निकलने को लेकर मंथन किया।
राहुल के सवाल पर की कोरोना संकट, लॉकडाउन और आर्थिक तबाही के प्रभाव के बारे में कैसे सोचना चाहिए। इसका जवाब देते हुए अभिजीत ने कहा कि सरकार लोगों के हाथ में पैसा दे। बैनर्जी का मानना है कि लोगों की क्रय शक्ति बनी रहनी चाहिए और उनका यह भरोसा भी बना रहना चाहिए कि जब लॉकडाउन खुलेगा तो उनके हाथ में पैसा होगा। इसलिए केंद्र सरकार को चाहिए कि वो ज्यादा से ज्यादा लोगों को पैसा दे।
साथ ही बनर्जी ने लोगों के हाथ में पैसा देने के अलावा अस्थायी राशन कार्ड बनने का सुझाव भी दिया है। उन्होंने कहा कि गरीबों और जरूरतमंदों के लिए अनाज की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए अस्थायी राशन कार्ड की व्यवस्था की जानी चाहिए वो भी बिना किसी पहचान के, जो भी आए उनको राशन कार्ड जारी करे गरीबों तक पहुंचने की बहुत ज्यादा जरूरत है।
…करोड़ों लोग वापस गरीबी में जाने वाले हैं
राहुल ने कहा कि भारत में कुछ समय के लिए नीतिगत ढांचा था, खासकर यूपीए शासन में, जब गरीब लोगों के लिए एक प्लेटफार्म था। उदाहरण के लिए, मनरेगा, भोजन का अधिकार आदि और अब उसका बहुत कुछ उल्टा होने वाला है, क्योंकि हमारे सामने ये महामारी है और करोड़ों लोग वापस गरीबी में जाने वाले हैं। इस बारे में कैसे सोचना चाहिए?
…क्योंकि वो वहां के निवासी नहीं हैं
जिसके जवाब में बनर्जी ने कहा कि मेरे विचार दोनों को अलग कर सकते हैं। वास्तविक समस्या यह है कि वर्तमान समय में यूपीए द्वारा लागू की गई ये अच्छी नीतियां भी अपर्याप्त साबित हो रही हैं और सरकार ने उन्हें वैसा ही लागू किया है। इसमें कोई किन्तु-परन्तु नहीं था। यह बहुत स्पष्ट था कि यूपीए की नीतियों का आगे उपयोग किया जाएगा। ये सोचना होगा कि जो इनमें शामिल नहीं है, उनके लिए हम क्या कर सकते हैं। ऐसे बहुत लोग हैं- विशेष रूप से प्रवासी श्रमिक। यूपीए के अंतिम वर्षों में विचार था- आधार योजना को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करना, जिसे इस सरकार ने भी स्वीकारा, ताकि उसका उपयोग पीडीएस और अन्य चीजों के लिए किया जा सके। आधार कार्ड के जरिए आप जहां भी होंगे, पीडीएस के पात्र होंगे। ये बेहतर होता। इससे बहुत सारी मुसीबतों से बचा जा सकता है। आधार दिखाकर लोग स्थानीय राशन की दुकान पर पीडीएस का लाभ उठा पाते। वो मुंबई में इसका लाभ उठा सकते, चाहे उनका परिवार मालदा, दरभंगा या कहीं भी रहता हो। ये मेरा दावा है। ऐसा नहीं हुआ, इसका मतलब है- एक बहुत बड़े वर्ग के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। मुंबई में मनरेगा नहीं है, इसलिए वो इसके पात्र नहीं हैं। पीडीएस के पात्र नहीं हैं, क्योंकि वो वहां के निवासी नहीं हैं।
उन्होंने आगे कहा कि समस्या का हिस्सा यह है कि नीतिगत ढांचे की संरचना इस विचार पर आधारित थी कि कोई भी व्यक्ति जो वास्तव में जहां काम कर रहा है, वहां उसकी गिनती नहीं है और इसलिए आमदनी कमाने के कारण आपको उनके बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है और ये विचार विफल हो गया है। जहां तक गरीबी का सवाल है, मैं स्पष्ट नहीं हूं कि अगर अर्थव्यवस्था में सुधार होता है, तो गरीबी पर इसका प्रभाव पड़ेगा। वास्तविक चिंताएं हैं- क्या अर्थव्यवस्था पुनर्जीवित होगी और विशेष रूप से, कोई इस प्रक्रिया के माध्यम से इस महामारी के संभावित समय के बारे में कैसे सोचता है। मुझे लगता है कि हमें देश की समग्र आर्थिक समृद्धि की रक्षा के बारे में आशावादी होना चाहिए।
…एक व्यक्ति ही वायरस से लड़ सकता है
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने आगे कहा कि लोगों के दिमाग में यह बात डाली जा रही है कि मजबूत नेता ही वायरस से लड़ सकता है और जनमानस में ये बात डाली जा रही है कि एक व्यक्ति ही वायरस से लड़ सकता है।
जिसका जवाब देते हुए अभिजीत बनर्जी ने कहा कि यह विनाशकारी है। अमेरिका और ब्राजील दो ऐसे देश हैं, जहां बुरी तरह गड़बड़ हो रही है। ये दो तथाकथित मजबूत नेता हैं, जो सब कुछ जानने का दिखावा करते हैं, लेकिन वे जो भी कहते हैं, वो हास्यास्पद होता है। अगर कोई “मजबूत व्यक्ति” के सिद्धांत पर विश्वास करता है, तो यह समय अपने आप को इस गलतफहमी से बचाने का है।
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राहुल के इस सवाल पर कि बहुत से लोगों को छोटे और मध्यम व्यवसायों से अपनी नौकरी मिलती है, जिनको नकदी की समस्या होने जा रही है। और बहुत से व्यवसाय इस झटके के कारण दिवालिया हो सकते हैं। इसलिए इन व्यवसायों को होने वाले आर्थिक नुकसान और इन लोगों की नौकरी बनाए रखने की क्षमता के बीच सीधा संबंध है।
प्रोत्साहन पैकेज की आवश्यकता, अमेरिका, जापान, यूरोप यही कर रहे
जवाब में अभिजीत बनर्जी ने कहा कि यही कारण है कि, हम में से बहुत से लोग कहते रहे हैं कि हमें प्रोत्साहन पैकेज की आवश्यकता है। अमेरिका, जापान, यूरोप यही कर रहे हैं। हमने बड़े प्रोत्साहन पैकेज पर निर्णय नहीं लिया है। हम अभी भी जीडीपी के एक प्रतिशत पर हैं, अमेरिका दस प्रतिशत तक चला गया है। हमें एमएसएमई सेक्टर के लिए ज्यादा करने की आवश्यकता है। ऋण भुगतान पर रोक लगाकर बुद्धिमानी का काम किया है, इससे ज्यादा किया जा सकता था। इस तिमाही के लिए ऋण भुगतान रद्द किया जा सकता था और सरकार उसका भुगतान करती। ताकि लोगों को एक तिमाही के लिए भुगतान न करना पड़े।
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वास्तव में इसे स्थगित करने के बजाय स्थायी रूप से रद्द किया जाए। ऐसा किया जा सकता था, लेकिन इससे परे, यह स्पष्ट नहीं है कि एमएसएमई पर ध्यान केंद्रित करना सही प्रणाली है। यह मांग को पुनर्जीवित करने का मसला है। हर किसी को पैसा दिया जाए, ताकि वो सामान खरीद सकें। तो एमएसएमई इनका उत्पादन करेगा। लोग खरीद नहीं रहे हैं। यदि उनके पास पैसा है या सरकार उन्हें पैसे देने का वादा करती है, तो आवश्यक नहीं कि अभी पैसा दिया जाए। रेड जोन में सरकार कह सकती है कि जब भी लॉकडाउन खत्म होने पर लोगों के खाते में दस हजार होंगे और वो इसे खर्च कर सकते हैं। अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए खर्च बढ़ाना सबसे आसान तरीका है, क्योंकि जब एमएसएमई को पैसा मिलता है, वे इसे खर्च करते हैं और फिर इसकी सामान्य कीनेसियन चेन रिएक्शन होती है।
जो छह सप्ताह तक दुकान बंद रखने के बाद गरीब हो गया
वहीं राहुल ने सवाल किया कि हम न्याय जैसी योजना या लोगों को सीधे नकद हस्तांतरण के बारे में बात कर रहे हैं? जवाब में अभिजीत ने कहा बिलकुल। चाहे वो सबसे गरीब लोगों के लिए हो, वह चर्चा का विषय है। मैं इसे व्यापक स्तर पर देखूंगा… मुझे लगता है कि चिन्हित करना बेहद महंगा पड़ सकता है। इस संकट के समय में सरकार उनको चिन्हित करने की कोशिश करेगी, जो छह सप्ताह तक अपनी दुकान बंद रखने के बाद गरीब हो गया है, मुझे नहीं पता कि वे इसे कैसे समझेंगे। निचले तबके की 60 प्रतिशत आबादी को पैसा देने में कोई बुराई नहीं है। अगर सरकार उन्हें पैसा देती है, तो शायद उनमें से कुछ को इसकी जरूरत नहीं होगी। लेकिन वे इसे खर्च करेंगे, यदि वे इसे खर्च करते हैं, तो इसका अच्छा प्रभाव होगा। एकमात्र जगह जहां मैं अधिक आक्रामक हूं- मैं सबसे गरीब लोगों से आगे के लोगों की सोचूंगा।
हमारे यहां मांग की समस्या
साथ ही राहुल ने ये भी सवाल किया कि आप बड़े पैमाने की बात कर रहे हैं, ताकि जल्द से जल्द मांग शुरू हो, जिसपर नोबेल विजेता ने कहा कि बिलकुल। मैं ऐसा कह रहा हूं। मैं पहले भी कहता रहा हूं कि हमारे यहां मांग की समस्या है। अब यह समस्या बड़ी होने जा रही है। क्योंकि साधारण सी बात है, पैसे के अभाव में कुछ न खरीद पाने के कारण दुकानें बंद है, क्योंकि लोग भी खरीद नहीं रहे हैं।
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इसके अलावा बनर्जी ने आगे कहा कि मुझे लगता है कि इसका अंतिम हिस्सा उन लोगों को नकद दिलाना है और उसके लिए ढांचे की जरूरत है। हम लोगों को ऐसे ही नकद नहीं दे सकते हैं। जिन लोगों के पास जन धन खाते हैं, वे पैसा प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन बहुत से लोगों के पास नहीं है। और विशेष रूप से, प्रवासी श्रमिकों को लाभ नहीं पहुंच सकता। जनसंख्या का बड़ा हिस्सा, जिनके पास इसकी पहुंच नहीं है, हमें उनके बारे में भी सोचने की जरूरत है। एनजीओस के माध्यम से वंचित लोगों तक अपनी योजनाओं को पहुंचाने के लिए राज्य सरकारों को पैसा देना चाहिए…कुछ हद तक गलतियों के लिए तैयार रहना होगा। हो सकता है कुछ पैसा ना पहुंचे, लेकिन हाथ पर हाथ रखकर बैठने से कुछ भी हासिल नहीं होगा।